घर शहर में था
शहर राज्य में
राज्य देश में थे
देश दुनिया में थे
ए स्त्री …तू कहाँ थी ?
जब प्रेम में न थी
तब प्रेम में धकेली गई थी
जब प्रेम में थी
तब भी निरी अकेली थी
ओ स्त्री… तू कैसी थी ?
किसी की माँ ,किसी की बेटी थी
किसी की बहन ,किसी की बीवी थी
क्या तू कभी खुद की भी थी ?
दलित थी,स्वर्ण थी,विकलांग थी ,ग़रीब थी
बस एक आज़ाद नागरिक नहीं थी।
स्त्री…तू कौन थी ?
बच्चे पैदा करने के लिए थी ?
मर्द की चाकरी करने के लिए थी?
खून से तर जाँघें लिए अखबारों में छपने के लिए थी ?
या सड़कों पर फेंके और जलाये जाने के लिए थी ?
स्त्री… आख़िर तू क्यूँ थी ?
चल स्त्री..
उठ खड़ी हो , रीढ़ रख सतर और घावों से हो बेफ़िक्र
चल …
बताते हैं दुनिया को उसकी आँखों मे आँखें डालकर
कि स्त्री कहाँ है,कौन है ,कैसी है और क्यूँ है ।
क्या तू जानती है कि
दुनिया की सारी साजिश ही है
तुझे इन जवाबों को खोजने न देने की ।
क्या तुझे ज़रा भी इल्म है
इस ताकतवर दुनिया का शेर-दिल घबरा उठता है
सिर्फ तेरे इन्हीं बेबाक जवाबों से।
— अज्ञात